आपका शिशु 2 वर्ष की आयु में पहुंचते-पहुंचते समझने लगता है कि वे कौन है उनके आसपास मौजूद लोग कौन हैं। उसमें आत्म-ज्ञान का विकास प्रारंभ हो जाता है और वे कारण और प्रभाव को सीखना शुरू कर देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी सोचने की क्षमता में विकास प्रारंभ हो जाता है।
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एक दिन दो वर्ष की सारा दोनों हाथों में फूल लेकर एक दरवाजे तक चली जाती है। वह यह समझ कर रूक गई कि दोनों हाथों को व्यस्त रख कर वह दरवाजे को खोल नहीं पाएगी। उसने फूलों को फर्श पर रख दिया और दरवाजे की कुंडी को पकड़ने की कोशिश करने लगी। उसके बाद वह फिर रूकी यह जानकर कि खुलने के बाद दरवाज़ा फूलों को मसल देगा। आखिरकार, फूलों को सुरक्षित स्थान पर रखने के बाद उसने दरवाज़ा खोला।
यह एक सामान्य गतिविधि का उदाहरण था जिसके लिए कुछ सोचने की आवश्यकता थी। सारा के मन में अपनी हर गतिविधि के नतीजे की कुछ पूर्वकल्पना जरूर रही होगी। वह आगे के बारे में सोच रही थी और अपने कार्यों के परिणाम का आकलन कर सकती थी।
दृष्टिकोण और बदलाव पहचानने का तरीका बच्चे की आयु पर निर्भर करता है।
उदाहरण के लिए छोट शिशु हमेशा प्रयोग करते और सीखते हैं: सारा का पूर्वचिंतन उनके लिए संभव नहीं है क्योंकि वे अब भी ज्यादातर परीक्षण और त्रुटि से सीख रहे होते हैं। वे अपना ज्यादातर समय विभिन्न चीजों को जिज्ञाशा के साथ छूकर और देखकर व्यतीत करतें हैं। “अगर यह टुकड़ा गिर जाए तो क्या होगा? अथवा इस गेंद को फेंकने पर क्या होगा? अथवा अगर मैं पानी के अपने गिलास को पलट दूं तो क्या होगा?” छोटे बच्चे अभी इस बात को लेकर आश्चर्यचकित है कि चीजें कैसे काम करती हैं।
हालांकि बड़े शिशु प्रयोग से कम और कल्पना से ज्यादा सीखने की प्रवृति रखते हैं। जैसे-जैसे उसका संज्ञान बढ़ता है, चीजों को याद रखने की उनकी क्षमता बढ़ती जाती है। वे सीधे प्रयोग करने के बजाय किसी चीज को करने की कल्पना कर अपनी इच्छित गतिविधियों के नतीजों के बारे में समझना शुरू कर देते हैं। यह क्षमता कभी-कभी आपके नन्हे का बचाव करता है और उन्हें अपनी रुचि की चीजों के साथ खेलने में सक्षम बनाती है! जिस गति से वे नई चीजों या खिलौने का परीक्षण करते हैं वह आपको हैरत में डाल देगा।
शिशुओं के जीवन की यह अवस्था उनके द्रूत संज्ञानात्मक विकासों में से एक है और बच्चे इन विशेष वर्षों में ही अपने तर्क और चिंतन का इस्तेमाल करना शुरू करते हैं। आप महसूस करते हैं कि अब वे बहुत अधिक प्रश्न पूछ कर और ज्यादा जिज्ञाशु हो रहे हैं। उस जिज्ञासा को और अधिक जगाना महत्वपूर्ण है,और न कि उस पर रोक लगाना! माता-पिता की जिम्मेदारी निभाने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि शिशुओं की सोच में आए बदलाव को समझें और अनुकूल प्रतिक्रिया दें।